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सोमवार, 19 मई 2025

राम कथा हिंदी में लिखी हुई ram katha hindi || part-4

राम कथा हिंदी में लिखी हुई ram katha hindi || part-4

राम कथा हिंदी में लिखी हुई ram katha hindi || part-4

जिस प्रकार किसी तीर्थ में प्रवेश के लिए शुद्ध अंतःकरण आवश्यक होता है, उसी प्रकार श्रीराम कथा में प्रविष्ट होने के लिए भी एक विशिष्ट पात्रता चाहिए — वह पात्रता है श्रद्धा और विश्वास। गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित मंगलाचरण का एक श्लोक इस गूढ़ सत्य को अत्यंत सरल शब्दों में प्रकट करता है—

"भनानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिध्दा शान्तास्थमीश्वरम्।।"

इस श्लोक में भगवान शिव और माता पार्वती को श्रद्धा और विश्वास का स्वरूप माना गया है। बिना श्रद्धा और विश्वास के न कोई प्रभु को प्राप्त कर सकता है और न ही कथा की गहराइयों में प्रवेश कर सकता है। यही कारण है कि श्रीरामकथा की शुरुआत में शिव-पार्वती की कथा का स्मरण किया जाता है — ताकि मन में श्रद्धा का दीप जले और विश्वास की ज्योति चमके।

श्रद्धा और विश्वास वह सेतु हैं जिनके बिना भगवान राम और भक्ति रूपा सीता के दर्शन असंभव हैं। स्वयं भगवान शिव, जिनके मन में श्रीराम का प्रेम समुद्र सा अथाह है, उन्होंने राम कथा को अपने मानस में रचकर संजो लिया और उपयुक्त समय पर देवी पार्वती को सुनाया।

त्रेता युग की एक लीला में भगवान शंकर अपनी अर्द्धांगिनी सती के साथ महर्षि कुंभज के आश्रम पधारते हैं। कुंभज ऋषि — जिनका जन्म एक घट से हुआ था — ने भगवान शंकर का पूजन कर उन्हें अखिल ब्रह्मांड का ईश्वर मानकर आदर पूर्वक कथा श्रवण कराई। भोलेनाथ ने अत्यंत प्रेमपूर्वक श्रीराम की कथा को सुना और उन्हें "परम सुख" की अनुभूति हुई। यह कथा केवल आनंददायक नहीं है, यह परम आनंद का अनुभव कराती है।

सुनना स्वयं एक तपस्या है। संसार में अधिकतर लोग सुनाने को आतुर रहते हैं, पर सुनने का धैर्य और विनय दुर्लभ है। जो नहीं सुनता, वह सुख से वंचित रह जाता है। कथा का श्रवण करने से ही महादेव 'देवों के देव' हो पाए, जबकि शेष देवता केवल 'देवता' रह गए। इसीलिए कथा सुनने का अद्भुत फल मिलता है — यह श्रवण साधना स्वयं में परम योग है।

कुंभज ऋषि एक प्रतीक हैं — एक ऐसा पात्र जो राम कथा रूपी अपार समुद्र को अपने अंदर समेट लेता है और फिर उस अमृत को श्रद्धालु श्रोताओं तक पहुंचाता है। समुद्र की अथाहता को न कोई माप सकता है, न समेट सकता है, पर एक साधारण सा घड़ा — जब पात्रता को प्राप्त हो — तब वह असंभव को संभव बना सकता है।

शिवजी जब कथा श्रवण कर लौटते हैं, तभी वन में श्रीराम अपनी प्रिय सीता के वियोग में एक वन से दूसरे वन भटक रहे हैं। जब शंकरजी की दृष्टि राम पर पड़ती है, तो वह दूर से ही प्रणाम करते हैं। उनके पास नहीं जाते, क्योंकि वे जानते हैं कि यह लीला काल है, और इस रहस्य का उद्घाटन उचित नहीं।

सती जी इस दृश्य को देखकर चकित हो जाती हैं। वे मन ही मन सोचती हैं — "क्या यह वही सच्चिदानंद श्रीराम हैं, जिनकी मेरे स्वामी स्तुति करते हैं? जो पत्नी वियोग में दुखी होकर वन-वन भटक रहे हैं, क्या वही ईश्वर हैं?" संदेह ने श्रद्धा पर आघात किया, और माता सती की श्रद्धा डगमगाई।

भगवान शंकर ने सती के मन की बात समझ ली। उन्होंने उन्हें परीक्षा लेने की अनुमति दी, लेकिन साथ नहीं गए। स्वयं वटवृक्ष के नीचे बैठ गए — जो उनके अचल विश्वास का प्रतीक था।

"बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा।।"

इस प्रतीकात्मक वटवृक्ष के नीचे बैठकर भगवान शिव प्रतीक्षा करते हैं — प्रतीक्षा इस सत्य के उद्घाटन की कि "जो होना है वही होगा, जो राम रचि रखा है, वह होकर ही रहेगा।"

इस कथा का सार यही है — कि बिना श्रद्धा और विश्वास के रामकथा एक शुष्क वृत्तांत मात्र रह जाएगी। और जहां श्रद्धा और विश्वास का संयोग होता है, वहीं रामकथा रससरिता बनकर जीवन को पवित्र करती है। शंकर स्वयं उस श्रद्धा के मूर्तिमान स्वरूप हैं और सती की परीक्षा इस बात का स्मरण कराती है कि सच्चे श्रवण के लिए पहले मन को निर्मल करना आवश्यक है।

इसलिए, हे रामकथा अनुरागी सज्जनों! जब भी इस दिव्य कथा का श्रवण करें, तो श्रद्धा को दीपक बनाएं और विश्वास को बाती। तब जाकर यह कथा केवल सुनी नहीं जाएगी, बल्कि हृदय में उतरेगी — और जीवन का रूपांतरण करेगी।


राम कथा हिंदी में लिखी हुई ram katha hindi || part-4