राम कथा हिंदी में लिखी हुई ram katha hindi || part-5
लक्ष्मण जी की दृष्टि पड़ी तो वे चकित हुए, और जब श्रीराम की दृष्टि सती पर पड़ी, तो उन्होंने उन्हें सादर प्रणाम कर अपना परिचय दशरथ पुत्र राम के रूप में दिया और पूछ लिया कि वे वन में अकेली किस कारण विचर रही हैं।
सतीजी को संकोच हुआ और बिना उत्तर दिए लौट आईं। उनकी परीक्षा असफल रही क्योंकि रामजी उन्हें जानकी रूप में नहीं, उनके वास्तविक स्वरूप में ही देख सके। प्रभु के सर्वव्यापक रूप का साक्षात्कार कर सती का चित्त व्याकुल हो उठा और वे पश्चाताप से भरकर भोलेनाथ के पास लौटीं। शिवजी ने जब यह जानना चाहा कि क्या परीक्षा ली गई, तो सती संकोचवश झूठ बोल गईं।
शिवजी ने ध्यान लगाकर सब जान लिया और हृदय में गहन विषाद लिए संकल्प किया कि अब इस शरीर के माध्यम से सती से कोई संबंध नहीं रखेंगे। उनके इस गंभीर व्रत की आकाशवाणी ने पुष्टि की, जिससे सती भयभीत हो गईं, किंतु शिवजी ने कुछ न कहा। व्यथित सती को सांत्वना देने हेतु शिवजी विभिन्न कथाओं द्वारा उन्हें प्रसन्न करने लगे और फिर कैलाश की ओर प्रस्थान कर वटवृक्ष के नीचे समाधिस्थ हो गए।
उधर, ब्रह्मा जी द्वारा प्रजापति नियुक्त किए गए दक्ष को जब पद का अहंकार हुआ, तो उसने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें सभी देवों को आमंत्रित किया पर अपने ही दामाद और पुत्री को नहीं बुलाया। जब देवगण अपने विमानों से कैलाश के ऊपर से उड़ते हुए जा रहे थे, सती ने देखा और जिज्ञासावश शिवजी से पूछा, जिन्होंने बताया कि यह सब दक्ष के यज्ञ में जा रहे हैं।
बिना निमंत्रण के भी पिता के घर जाने की बात पर सती हर्षित हुईं, पर शिवजी ने उन्हें समझाया कि जहां तिरस्कारपूर्वक आमंत्रण न हो, वहां जाना उचित नहीं। सती का मन पिघलता गया, किंतु वे जाने की जिद पर अड़ी रहीं। शिवजी ने उन्हें दक्ष द्वारा किए अपमान और बैर की कथा सुनाई, जिससे स्पष्ट हुआ कि जो स्थान श्रद्धा से वर्जित हो वहां जाना आत्मघात समान होता है।
सज्जनों, यह कथा उस काल की है जब भगवान शंकर ने माता सती को अनेक प्रकार से समझाया, उन्हें भावी संकट की चेतावनी दी, पर प्रारब्ध के वश होकर सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाने का निर्णय कर ही लिया। जब वे प्रस्थान करने लगीं, तो शिवजी ने उनके साथ अपने गणों और वस्त्र-आभूषण भी भेज दिए।
सज्जनों, यह कथा उस काल की है जब भगवान शंकर ने माता सती को अनेक प्रकार से समझाया, उन्हें भावी संकट की चेतावनी दी, पर प्रारब्ध के वश होकर सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में जाने का निर्णय कर ही लिया। जब वे प्रस्थान करने लगीं, तो शिवजी ने उनके साथ अपने गणों और वस्त्र-आभूषण भी भेज दिए।
पिता के घर पहुंचने पर केवल माता ने उन्हें स्नेहपूर्वक अपनाया, बहनें उपहास करने लगीं और स्वयं दक्ष ने तो कुशल-क्षेम तक पूछना उचित नहीं समझा। यज्ञ भूमि पर माता सती ने जब देखा कि समस्त देवताओं का स्थान है, किन्तु उनके आराध्य और पति भगवान शिव का कहीं कोई भाग नहीं है, तब वे व्याकुल हो उठीं। पिता के सेवकों से पूछा तो उत्तर मिला—इस यज्ञ में महादेव का कोई स्थान नहीं है। यह सुनते ही सती की देह क्रोध की ज्वाला से कांप उठी। उन्होंने घोषणा की कि जो यज्ञ मेरे स्वामी का तिरस्कार करता है, वह यज्ञ अपवित्र है, वह यज्ञ संहार योग्य है।
उन्होंने योगाग्नि उत्पन्न कर अपने ही शरीर का त्याग कर दिया, यह कहते हुए कि ऐसा शरीर किस काम का, जो पति के सम्मान की रक्षा न कर सके। जब यह समाचार भगवान शंकर को प्राप्त हुआ, तब उन्होंने वीरभद्र को भेजकर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करवा दिया। बंधुओ, स्मरण रखिए—जो यज्ञ किसी के अपमान हेतु किया जाए, वह कभी पूर्ण नहीं होता। समय बीता, भगवान शंकर विरक्त भाव से ध्यान में लीन हो गए। सती का पुनर्जन्म हिमाचलराज के घर पार्वती रूप में हुआ, क्योंकि देह त्यागते समय उन्होंने यह वर मांगा था कि जन्म-जन्मांत में उन्हें शिवजी ही पति रूप में प्राप्त हों।
जब नारद मुनि ने हिमाचल को बताया कि आपकी कन्या के भाग्य में भगवान शिव हैं—जटाजूटधारी, श्मशानवासी, सर्पों का भूषण धारण करने वाले—तो मैना माता चिंता में पड़ गईं। नारद ने समझाया कि ये दोष नहीं, दिव्य गुण हैं। तब पार्वती जी ने शिव को पति रूप में पाने हेतु घोर तपस्या का संकल्प लिया। बिना आहार, बिना जल, केवल वनों में कठिन तप कर उन्होंने अपर्णा नाम प्राप्त किया।
उधर देवताओं को चिंता थी—तारकासुर का वध तभी होगा जब शिव विवाह करेंगे, पुत्र उत्पन्न होगा। तब वे कामदेव के पास गए और शिवजी की समाधि भंग करने को कहा। कामदेव ने अपने पांचों बाण शिवजी पर चलाए, परंतु तीसरा नेत्र खुलते ही वे भस्म हो गए।
रति विलाप करने लगीं तो शिवजी ने वरदान दिया कि द्वापर युग में वे कृष्ण पुत्र के रूप में पुनः प्राप्त होंगी। फिर ब्रह्मा, विष्णु और समस्त देवताओं ने शिवजी की स्तुति की, उन्हें विवाह हेतु अनुरक्त किया। यह कथा केवल प्रेम, तप और त्याग की नहीं, बल्कि उस दिव्यता की है जो अपने आराध्य के सम्मान में स्वयं को भी अर्पित कर देने का साहस रखती है।